पुराने समय में भारत देश में प्राकृतिक चिकित्सा और आयुर्वेद का अलग-अलग नहीं लेकिन समन्वित रूप से प्रयोग किया जाता था।
आयुर्वेद में औषधियों का उपयोग बहुत ही असामान्य स्थिति में किया जाता था।
उसमें महत्वपूर्ण तो दिनचर्या तथा ऋतुचर्या ही थी। हमारे ऋषि-मुनियों ने इन्हीं को महत्वपूर्ण माना और स्वास्थ्य को धर्म के साथ जोड़ दिया था जिससे मानव सहज रूप से अपने धार्मिक अनुष्ठानों के साथ-साथ स्वास्थ्य के नियमों का पालन भी करता रहे।
हमारे सभी पुराने फरवरियो हारों को भी स्वास्थ्य के साथ जोड़ दिया था। नवरात्रि का 9 दिन का फल तथा 15 दिन का एकादशी का 1 दिन का व्रत सहज ही ऋतु परिवर्तन के चलते तथा चंद्रकलाओके बढ़ते घटते स्वास्थ्य को बनाए रखने की दृष्टि से महत्वपूर्ण धार्मिक क्रिया बना दी गई।
व्रतों में फलाहार का विधान भी उतना ही महत्वपूर्ण था। परंतु धीरे-धीरे इन व्रत उपवास के विधानों में से स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता का भाव मिटता गया और मात्र पाप पूर्णिया के भाव से इनका पालन किया जाता है।
इस विकृति के साथ मानव जीवन में संयम के प्रति रूचि कम होती गई।
जो आयुर्वेद कार को औषधि मानता था, पथ्य के साथ औषधि की ओर अपनी रुचि रखने लगा और लोग स्वस्थ रहने के लिए औषधि पर आश्रित होने लगे।
प्राकृतिक चिकित्सा में पंचमहाभूतों के साथ महत-तत्व राम नाम पर भी जोर दिया जाता है।
साथ ही आहार तथा योग में से आसन प्राणायाम का सहारा लेते हैं।
आहार तो प्राकृतिक चिकित्सा का जैसे प्राण तत्व ही है।
यह छे क्रियाओं के द्वारा शरीर की शादी की जो प्रक्रिया आयुर्वेद में चलती है वही धीरे-धीरे प्राकृतिक चिकित्सा में मुख्य रूप से किया जाता है।
स्वतंत्रता से पूर्व भारत में प्राकृतिक चिकित्सा को विशेष रूप से “पानी के इलाज” के रूप में माना जाता था।
जर्मन के प्रसिद्ध चिकित्सक लुई कूने की पुस्तक “न्यू साइंस ऑफ हीलिंग” के आधार पर टॉप स्नान द्वारा रोगों की चिकित्सा की जाती थी।
भारत के कई राज्यों में प्राकृतिक चिकित्सा का उपयोग कर कही पर पानी को चिकित्सा या देशी चिकित्सा केंद्र की तरह गांव शहर हर जगह के लोग चिकत्सा करवाते थे।
आजादी मिलने के पूर्व ही महात्मा गांधी द्वारा एडोल जूस्ट की पुस्तक “रिटर्न टू नेचर” पढ़ने के बाद उनके द्वारा जल के साथ मिट्टी का भी प्रयोग प्रारंभ होने लगा।
गांधी जी ने आर पर भी प्रयोग किए और कुदरती उपचार में उसे जुड़ा। इस प्रकार हम देखते हैं कि आजादी से पूर्व ही भारत में प्राकृतिक चिकित्सा का वर्तमान स्वरूप प्रकट होने लगा था।
अप्रैल 1946 में गांधी जी द्वारा उरली कांचन में निसरगोपचार आश्रम की स्थापना प्राकृतिक चिकित्सा के लिए मील का पत्थर बना।
धीरे-धीरे देश में प्राकृतिक चिकित्सालय खुलने की परंपरा बन गई कई केंद्र खुले।
कोलकाता में डॉक्टर कुलरंजन मुखर्जी, गोरखपुर में महावीर प्रसाद, विट्ठल दास मोदी तथा हीरालाल जी।
भारत में कई लोगों ने जिन्होंने स्वतंत्र भारत में प्राकृतिक चिकित्सा के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
इसके अतिरिक्त भी उनके और छोटे बड़े केंद्र देश के विभिन्न स्थानों पर चलते थे।
श्री बाला को बाबा वे जिन्हें गांधी जी ने उरली कांचन केंद्रक का उत्तरदायित्व सौंपा था के मार्गदर्शन में तत्कालीन प्राकृतिक चिकित्सा को तथा प्रकृति प्रेमी ने मिलकर 1956 में अखिल भारतीय प्राकृतिक चिकित्सा परिषद की स्थापना की।
इसका मुख्य उद्देश्य देश में प्राकृतिक चिकित्सा का प्रचार प्रसार तथा साथ ही इस पद्धति को सरकार से मान्यता दिलाना और इस पद्धति के योग्य स्नातक तैयार करना था।
1964 में कोलकाता में भारत का प्रथम 4 वर्षीय भारतीय प्राकृतिक चिकित्सा विद्यापीठ स्थापित हुआ।
दुर्भाग्य से बात 4 वर्ष पूरे होते होते ही बंद हो गया। किंतु उसके बाद दक्षिण में धीरे-धीरे 4 विश्वविद्यालयों ने प्राकृत चिकित्सा को स्वीकार कर इसका डिग्री कोर्स प्रारंभ किया।
आज दक्षिण के चार कॉलेजों के अतिरिक्त छत्तीसगढ़ तथा गुजरात में भी कॉलेज प्रारंभ हो चुका है।
अथक प्रयासों के बाद भी केंद्रीय सरकार ने प्राकृतिक चिकित्सा को चिकित्सा पद्धति के रूप में स्वीकार तो नहीं किया और उसके लिए बजट में प्रावधान कर एक केंद्रीय योग एवं प्राकृतिक चिकित्सा अनुसंधान परिषद की स्थापना की।
आज यह संस्था दिल्ली में काम कर रही है। इसके बाद केंद्रीय सरकार ने एक राष्ट्रीय प्राकृतिक चिकित्सा संस्थान एन आई एन कि पुणे में स्थापना की।
यह दोनों केंद्र आदेश में प्राकृतिक चिकित्सा के विकास के साथ इसके शिक्षण प्रशिक्षण तथा प्रचार कार्य में लगे हैं।
महात्मा गांधी बापू के निधन के बाद उनके द्वारा सुझाए गए 19 रचनात्मक कार्यों को गति देने तथा करते रहने की दृष्टि से गांधी स्मारक निधि की स्थापना हुई।
इस नीति से भी प्राकृतिक चिकित्सा के प्रचार प्रसार का कार्य निरंतर किया जा रहा है।
आज देश में गांधी स्मारक प्राकृत चिकित्सा समिति ने अपना विशिष्ट स्थान बना लिया है।
गांधी नेशनल एकेडमी ऑफ नेचुरोपैथी के माध्यम से देश के विभिन्न प्रांतों में 70 से अधिक केंद्रों पर प्राकृतिक चिकित्सा के योग्य चिकित्सक तैयार करने का कार्य चल रहा है।
एकेडमी NDDY के नाम से 3 वर्षीय डिप्लोमा का कोर्स चलाती है। अखिल भारतीय प्राकृतिक चिकित्सा परिषद विदेश में डी एन वाई एस के नाम से डिप्लोमा कोर्स चलाती है इसके भी देश के विभिन्न प्रांतों में 70 से 72 केंद्र होंगे।
आरोग्य मंदिर गोरखपुर मध्य प्रदेश प्राकृतिक चिकित्सा परिषद आदि 1 वर्षीय डिप्लोमा कोर्स चलाते हैं।
CCRYN द्वारा बी 1 वर्षीय कोर्स चलाया जाता था। भावनगर विश्वविद्यालय तथा जामनगर आयुर्वेद विश्वविद्यालय में भी प्राकृतिक चिकित्सा के 2 वर्षीय डिप्लोमा कोर्स चला रखे हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति से अब तक 58 वर्षों में प्राकृतिक चिकित्सा का काफी प्रचार प्रसार हुआ है।
प्राकृतिक चिकित्सा ही नहीं योग को भी भारत में और पूरे विश्व में मान्यता मिल रही है।
कई बड़े विश्वविद्यालयों ने अपने यहां योग को मान्यता प्रदान की है तथा इसके अध्ययन की व्यवस्था की है योग के विश्वविद्यालय और भी है सेवाग्राम महाराष्ट्र में प्राकृतिक चिकित्सा का विश्वविद्यालय प्रारंभ करने की तैयारी प्रारंभ हो चुकी है।
स्वाधीनता के इन 58 वर्षों में प्राकृतिक चिकित्सा संबंधी प्राचीन साहित्य हिंदी अंग्रेजी तथा देश की विभिन्न भाषाओं में छपा है। मराठी तथा गुजराती भाषा में हिंदी के बाद सबसे अधिक साहित्य पाया जाता है।
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